पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२७९

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शिवसिंहसरोज

२६० शिवसिंहसरोज • रजनी को तिमिर गयो प्रगटे सवं ग्वालबाल मोहन कन्हई ॥ हो में रे आनंद द गमन चंद मंद मंद प्रगव्यो मकास भार कमलन सुखदाई । संगी सब पुरत बेड तुम बिन ना छुटों चेहु उठो लाल तजो सेज सुंदर बर राई ॥ मुख ते पट दूरि जियो जमुदा को दर्जा दियो अरु दधि सख माँग लियो विविध रस मिठाई केंवत दोड रॉम स्याय सकल मंगल गुननिधान थार में कछु बढ़ रही सो मानदास पाई ॥ १ ॥ ५५४सदनगोपाल शुक्ल फतूहाबादी ( आर्धनविलास ) प्रवत प्रचंड सुंडादंड सधे घमंडदार तेरे द्मजदंड अखंड भार काँधयो है । सर्मदार सूम मुसील भू अर्जुनसे नेम परि तब चंडीपद अघरयो है । मदन सुकधि कविराज रानचंदन को दे दै गजवाजिवूद ही काज सायो है । कलि में गयो तो भोज बिक्रम घिना जो टूटि सोई आघ धर्मध्वजातें ही फेरि क्यो है।१॥ सील औ लाज मिठाई बतानिों तैसी दृढ़ाई वधर्म मयूपन । साधुता और पतित्रत दोष मिताई संवै सो न काहू को दूषन ॥ तैसी बिनै औौ अचार छमा गुरुलोगन सेइवे को विन दून ॥ ये ई तियान को तीरथ से सुखीरतिकारी हैं वादे भून ॥ २ ॥ ( वैद्यरत ) ज्वानी चहै फेरि जो आघन तो यह जतन कराऊ । बरा को रस काढ़ि के Jवराट्र्न सनाज ॥ वरा ने सनाउ - भाउना दें बहुत । बर’ मदनगोपाल बात जो मानै मेरी ॥ मुझे या में खाइ खाँड़ मएँ साँ यह सानी । ऊपर पीजें दूध फेरि चाहै जो ज्वानी: १ ॥ १ बलदाऊ । २ बार । ३ शहद ।