पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८४

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शिवसिंहसरोज २६५ । सहन मानि दूर्ति करै कठिन कलेसन के कद को ॥ और सुनो मुलसी गोसाई सूर आदिन की कविता साँ भाखें मनिदेव बुध खुद को | मन को लगाइ मुनौ मेरी बात भाषा प्रति लागति . प्यारी रघुनन्द, ब्रजचन्द्र को ॥ २ ॥ . मकरंद कवि तेरे मन भावे ना मनावै कैंसे मकरन्द लाल विन दृपनै ने लाल विन दूभै। हूँप्ति मन हँसो पिंय रसास करा प्यारी स्याये हैं गु मन ते सुमन लागे सूखने ॥ को लौं तू न बोलें सुख वोलै बलि जाऊँ प्यारी तो ते मधुई पाई ऊखमैं पिपनै । उन्हें प्यास भूख ने तू तजि वैटी भूखनै है तोहैिं तो मनावें ब्रजभूखने तू भू खनै ॥ १ ॥ कीधी बहि दस घंन शुमईि न बरसत कीधी मकरन्द नदी-नदपथ भरि गे । की पिक चातक चतुर चक्रधाक बक कीध मत्त दावुर मधुर मोर मरि गे ॥ में रे मन आवत न आाली थारे आावत ज्यों कामक़रानिकर मही ते व निकरि गे । कीधी पंचतर हर फेरि के भसम किया की धौं पंचप्सर जू के पाँच सर सरि गे ॥ २ ॥ ५६६ - मकरंद राय भाटपुवावाँ हास्यरसग्रन्थ ) साध की न साघ है असाध ही की सेवा करें कपटी रसायनीको देखे हरपात हैं । मारि जाने पारो तमो बंग करें हेमरंग दे हैं करि चौगुने गुरू की सौंद खात हैं। आपने पराये सब गहने उतारि लाये रहें मुंह बाये स्वामी सत्र प्रभात हैं । लोभ चाँदी सोने घर खोने के करम कीने रोमैं बैठि कोने जब दूने करि जात हैं ॥ १ ॥ ५६७चित कवि आजु निज पानिन ते पानि हुइ पाऊँ याही वेतन ते मारि गोप ग्वाल विचलाऊँ ना 1 बीरन की सह जो अहीरन के देखत ही बीर बलवीर को बीर गति ला न। मचिंत भनत जो मै जो जोरदान १,