पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८७

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शिवसिंहसरोज

1वसिंहसरोज अरुनबरन गुरीन पर, नखअवली की थाप । ज कनेर की कलिन में, पंखुरी लगी गुलाव ॥ ३ ॥ है पखाल मल मूत की, छनक माहेिं फटि जाय । रे अजान यहिखाल प, इतनो मति इतराय ॥ ४ ॥ केलि करी ससिमुखिन सैंग, कयो न हरि सों मेल । मेलबेल अवं सुमन के, चढ़यो काल की रेल ॥।। कषित पान हैं कहत तो सगें पूरी करु आास मेरी मो मन कचैरी धर्य धीर न धरायेते । तू तो है पकौरी तो साँ वड़ी मोखतई भई पाय है कलू को सार प्रीतम पराये ते ॥ से खड़ी है खोया मुकर न मनोहर महैिं नाहीं गाँदी सी का होत घबरये ते । कहत समोसे खजला के सब बराबरी गुपचुप रहो कहा बातन बनाये ते ॥ १ ॥ ५७१. सतादीन शुक् अजगरावाले बालवदी करै बादि सदा तुि मातु तक भरे गोद न माहीं। कूर कपूर करें पशु धूरि त तऊ पालक पालिवो नाहीं ॥ है नाथ तिहारे ही हाथ अनाथ हाँ दीन कहाँ केहि पाहीं। मैं जड़तावस तोईि तज्यो ताजि मोहैिं अरावरि होहु थाहीं ॥ १ ॥ पल एक अनेकन कल्प से जात बिना हरि सो नहिं आवत हैं । दुख दीन मलीन हिल न लखें त दीनदयाल कहावत हैं । । कुविजा कॐ भोग वियोग हमें लिखि ता पर जोग पठावत हैं । । बेगुनाह के नाहक काह कही जो जरे पर लोन लगावत हैं ॥ २॥ ५७२. मानिकदास कवि मथुरावासी ( मानिकबोध ) जमुनातट केाल करें बिहाँ सँग वाल गोपाल बने वल भैया । गावत हैं काँ बंसी वगावत धावत हैं कवर्से तुंग नैया ॥ कोकिल मोर की नहूँ वे वोलत कूजत हैं कपि मिर्ग की नैया । मानिक के मन माईि बस अस गेंद को नंद जसोदा को लैया ॥ १ ॥