पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२८८

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शिवसिंहसरोज २६९ ५७३. मुरारिदास कवि सुंदरलाल गोवर्द्धनधारी कहूँ तुप रैन बसे मेरे लाल आलस नयन चयन बलि वोलत लुटे बंद पग डगमग चाल सरग अधर रुचिर व नखछत कुच प्रसंग उर वितुलित माल । करि रथहीन मनपति जीयो चढ़ी धनुष मानो मोह विसाल ॥ नहिं सतभाय कहत पीतम स फिरत हो पातपात अरु डाल । दास पुरारि प्रीति औरन देखत प्रकट तुम्हारे हाल ॥ १ ५७४ मन्य कवि। गई साँ समै की वर्दी वदि के बड़ी बेर भई निसा जान लगी कवि मन्यजू जानी दगैलन गैलन बैल की छाती निदान लगी अब कौन को की भरोसो भटू निज वारिये खेती ये खान लगी । अति सूचे खुलाइये की वतियाँ नहिं जानिये काधी बतान लगी १ न ५७५ मननिधि कवि लसत सपानि तीखे ढारे खरसान महा मनमथान को गुमान गरियत है । भारे अनियारे देख तरल तरारे ये सुलच्छ नील तारे मीन हीन भरियत है ॥ मृग वनलीन जोति मोतिन की चीन ऐसे जलज नवीन जलधाम धरियत है । मनानिधि आज की आज़ी लखि नैनन में खूवी खंजरीट की खाम करियत है ॥ १ ॥ ५७६२ मणिठ कवि अमल अनंग के आनंद की उदित भूमि जीति पिय वाजी दगा चाजी सी पसारी है । कनक के पात से उदर में उदित दुति निवल तिहारी में निहारी मनिहारी है ॥ रूप गुन चातुरी सर्षों नैनरनागन को जीते मनिकंठ विधि सोहै रेख सारी है । सैौति-पुख उत्तरै को पियप्रेम चंहिचे को कुंदन की प्यारी पैर कारी सी सँवारी है ॥ १ ॥ के