पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/२९७

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२७८
शिवसिंहसरोज

२७८। शिवसिंहसरोज कुमाच कुंभिलाती हैं । आाव ना दिखात आफ़ताब सो बुलात देखि गालिब गुलाब को गरूर गरकाती हैं ।i रामजी सुकवि जाहि देखत प्रकास होत पाप की प्रनाली पास पास है विलाती हैं । राधा ठकुराइन के पाँइन के तीर कवि-उक्ति मड़राती खिसियाती फिरि जाती हैं ॥ १ ॥ ६०, रामदास कवि स्याम घन आये आली स्याम परदेस छाये स्यामकएठ सड आणि अंग में बढ़े लगी । स्यामकएठवोल खान स्यामकएठ सरि आने कोकिला हू छकि कि प्रानन कंहै लगी ॥ झिल्ली औ लुढ़क कूक युनि हिये होत हूक रामदास तात गुननिधि सर्षों pहै लगा । ऐनि कुंधियारी होन लागी लुम वाढ़ी दसकन्ध्रन् प्यारीऊ पयानो सो पढ़ लगी ॥ १ ॥ ६०४, राम कांवे, रामरल गुजरती ब्राह्मणफर्रुखाबादी ( बरवे नायिकावेद ) वरवें-पात पात करि ढकयों, सघ बन वीनि। घटहि ते मो बालस’ पस्यो न चीनि ॥ वालम सुरति विसरि, कहत फंदेस । एकह पथिक न वहुरा, कल वह देस ॥ वालम की पुत्रि चावत, यह गति मेरि । निकसिनिकसि जियपैसत, ज्य चकडोरि।। पात पात करि लटिसि, विपिन समाज । राजनीतियह कसिसिकस ऋतुराज । ॥ ६०५, रामसहाय कवि कायस्थ, बनारसी । ( त्ततरंगिणी ) घाँघते घूमधुमेरो लटें तन चुनरी रंग कुसुंभ के गाढ़े । U १ मोर । २ रावण के भाई विभीषणकी ली सरमार्थात् शर्म।