पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३०३

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२८४
शिवसिंहसरोज

२८४ शिवसिंहसरोज लभ मंदिर चित्त को देखत ही लेखि स्वान पयो तहाँ औचक है । झझकी रतनेस भई भय कंप चढ़ी रुचि रोम भई सक है । भुजमूल उरोज कपोलन दै नख भाजि गई न गई धक है ॥ १ ॥ प्रथम समागम ते कंपत सरोजमुखी दुखी है रहत अरु प्रीति न लहतेि है । दिनन की थोरी अरु बातन में अति भोरी नीवी कसि बाँधे डोरी छोरी ना चहत्ति है ॥ कहि रतने दिन बूढ़े मन वृद्धि आायो सालु को बोलाय दौरि पाँयन गहति है । जानि घर माहीं पिय आय गही बाहीं हम नाहीं हम नाहीं परछाहीं स रें कहति है ॥ २ ॥ ६२४. रजकुंवरि ( प्रेमरल ) सोरठा—अविगत आनंदवान्द। परमपुरुप परमातम । मिरि सु परमानन्द, गाषत कटु हरि विमल जसl१ ॥ आगाम उदधि मधि जाहैिं, पं तरहैिं वि जिमि तथूनि। तैसिय रुचि मन माहैिं, आमित कान्ह-जसगान की।।२. ६२५. रसनायक, तालिबली विलम्रामी तट को न घट भरें मग की. न पग धरे घर की न कछु कर बैठी भरें ससु री । एकै मुनि लोटि गई. एके लोटपोट भई एकन के दृग ते निकल आये ऑाँसुरी ॥ कहै रसनायक सो जवनि- तान वषि वघिक कहाय हाय भो कुल हाँ8 री । करिये उपाय वाँस डारिये कटाय नाहीं उपलै गो बाँस नाहीं वाबै फेरि बाँसुरी ॥ १ ॥ ६२६. रावराना कवि, चरखारीवाले भाट सोनजुही सेवती निवारी सौं विराजी भये राजी भये निरखि मुलामी सुख तेरी है । फूली फुलवारी वीच रा चारु चन्द्रिका सी सघन निकुंज की अँधेरी में उजेरी है ॥ सहज सुभाष छवि १ धड़कन । २ लंगड़े । ३ नाव । २ ।