पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३०९

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंHसरोज ' - T गहरि दिय खलभलत भार फनपति थर सल्लिय ॥ तरवर बन दय परत होत कुल्लाहल भरिय । इयहींसनि धर धसक मसक नर मिलत न नारिय ॥ चलि हंकि निसंक भंग दल प्रगट जंग दल जान तुछ । जान नंद रंगलाल मनि कुल घदनेस यु भा हुघ. ॥ १ ॥ ६४१ रसर rस कवि लालदि परि रही ललना मनो हेमलता लपटानी तमालहि । मालहि । !त जात न जानत लूटत है रसरास रसालहि ॥ सालहि सौतिन के डर में चलि री उवि बेगि दे ताल उतलहि । तालहैि देत उठी ततकाल लगाय गुपाल के गाल गुलालहि 1१॥ ६४२. रसरूप कवि एरे मतिमंद वि मानत कहे न छिमें जानि यह पीछे भली भाँति ससुझाबैगी । कवि रसरूप अंग ऑति के फिरत अवै अति जेहै सेवा जवे साँप पटवेग ॥ .ठ को कपालमाल डमरू त्रिमूल कर कामरू की विद्या दें बनाय बवर वैगी । तरल तरंगा ताको त्या तू संगा ना तो नंगा करि गंगा तोहिं पंच में नचाची ?] १ ॥ ६४३. रघुनाथराय कवि काली अरशेंग लै कपाली मुंडमाली चल्थयो देख लोहू लाली को हुलास ‘यो ध्यासे को कोप्यो रोयो राइ रघुनाथ कौन समुहाइ राइ उपराइन के परे जी उसासे को ॥ वाईसाह जहाँ वैो जंग जोरि त सच्छ साहसी अपरासिंह रोयो रनरासे को । लै लै छ दौरी अपछरा पहिराइवे को आसन सों आयो पाकसाँसन तमाचे को ॥ १ ॥ १ फ़ौरन ।२ जल्दी । ३ स!ला । ४ इंद्र