पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३१२

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" ६५२. रतन कवि, श्रीनगर बुंदेलखंडी ( तेशाहभूपण ) सोहत रंग मुखरंग में दुरंग से है जिन रंग सेहैिं को है रंग ना एँगीप के कधि रतन सरपसी भरे उरयसी तर बसी करें उरयसी के समीप के ॥ चमरुनि चीकने करमनि कैसे थोपे लोपे ते वि- लोकत विवेक ज्ञान दीप के ॥ सरस सरोजमुखी तेरे ये उरोज लेंगा मीर मसनंदी मानों मदन महीप के ॥ १ ॥ ( फ़तेप्रकाश ) सुंदर पुरंदर-गयन्द से बलद क मंदर समंद मंद झर मेदिनी ‘मैं । थापा की धम थुकि धसकि धराघरन ससकि सस सेल सीस न भरा थैरें ।॥ चार न लगत ऐसे वादेन वकसि देत साह मेदिनी को तेसाह साहसी ढ । पुंडरीके से प्रचएड ऐंड पुंडरीक जानि चुन सकेंगे चन्दमएड खरे-ख* ॥ १ ॥ गोकुल को गई मति गई हाँ दही लै गई नन्द के मन्दिर समीप है सिधाई हों। ग्वालि घरयाली तो सनेहवारी वातन में वेरि बनमाली बड़ी वेर बिलपाई हों : दो कर जोरि नैन मरि के निहोरि हरि कड़ा करों योर तारिखे को सकुचाई हाँ ।प्यारी तेरे प्यार के पत्यार प्यारे मोहन को मरम् नगीना करि देन कहि थाई हाँ ॥ २ ॥ ६५३. रतन कवि (२.) . ( रसमंजरी भाषा ) दोहा-कल कोल मद लोभ रस, कल गुजत रोलंव । काकदंब अवलंघकल लैवोटुर अवलंब ॥ १ ॥ चौपाई । यात्ति पुनीत ककितुषविहंडन । साहिसभा सदिन सिरपंडन ॥ दोहा-रसिकरज हरिवंस तिन, चंचक निज हेत । भा. उदित रसमंजरी, मधुर मधुर रस लेत ॥ २ ॥ १ थी।२ एक दिग्गज का नाम । ३ भ्रमर । 8 गणेश । -