पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३१५

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शिवसिंहसरोज

२१ ६ साठ थपैनो । जंघन सर्षों मस सोरे नाक सस महेरे भौंह हंस के सुर डर कनों श्रiन सा फूख ना मिलाद लपकानें लक भुज वॉचे लावें अंग छोड़ कर जपनों । ज्यां ज्य जां में आंव : त्यों रीफि स अधरा को ग्राड पिटे प्रिय को प्रिय पियें आफ्नो : १ ॥ ( इश्क महोत्सव ) चाप दरियाब, पास नदियों के जाना नहीं दरियाँ पास नदी इ३गी। सों या । दरखत बाल ीं के आसरे को रखता ना दरखत ही के आसरे को बेलि पांगी 1 यापके लायक कहने था खो कहा आईप रघुनाथ मेरी मांत याद ही की गदंगी। वह मुझताज आपकी है आप उस के ना आप कैसे चलौ वह थाप पास यार्नेगी १ ! S (काव्यकलाधर ) दह--ढरठ सत हैं यधिक) संवतसर उखसार का यकलाधर को भयो, कातिक में अवतार ॥ १ स्कूल वैन बस करत सरूछन जान ज्ञानन आग वान गथ वेद विधिविहित सुवि रघुनाथ कहै मतिपाल करता सकल एन्ध के सदस ग्रजीत आहु सबके जितैया ग्राषु आयु सरव है जbया से टकथ के । ऐसे मंसाराम के महोष वां खंड जैसे काम रुस्तम के रख दसरथ के ॥ १ ६५७ रसखानि कवि, सैयद त्राहीम, पिहानवाले पाठ्स होर्मु यही रसखालि वसों व्रजगोकुल गोष गुधारन जो प होॐ कहा बस में चलें नित नंद की ये झारन ॥ पादन होॐ बड़ी गिरि को जो घबो कर छत्र पुरंदर धारन । 3 स्थापित । २ मुद्र । ३ श्रीकृष्ण