पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३२०

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शिवसिंहसरोज ३० १ सलाल घु भाल पे टीओो लअरु प्यारी की बेंदी रही फचिन्यारी। झाँकें झरोखे में दोऊ लखे सिरीनन्दलला बृपभानु दुलारी ॥ १ ॥ ६६६, रामचरण ब्राह्मणगणेशपुरवाले ( कायस्थधर्मदर्पण ) दोहा—निकरी गजमुखगाल ते, नदी मयम जल ताल । पाप-की डाकिनी, हरै सक भ्रमजाल ॥ १ ॥ सीता, रघुनन्दनलपनभरत, समूहन वीर । चन्दौं पनबकुमारजुत, विहरत सरजू तीर ॥ २॥ बचन-नये इत्र एकमय) वचनपृथे के हेतु । वग्दों जग-जनन-जनक) पारवतीवृषकेतु ॥ ३ । ६६७रामराइ कवि पद जयति श्रीवल्लभभुवन उद्धरन त्रिभुवन फेरि नन्द के भवन की केलि ठानी। इष्ट गिरिवरधन सदा सेवक चरन द्वार चारों घरन भरत पानी ॥ वेदपथ व्यास से हनुमान दास से ज्ञान को कपिल से कर्मजोगी । साधु लछिमन निपुन बहु ब्रजराज प्रगट मुखरसि मनो इन्दुभोगी ॥ सिन्धुसम गम्भीर मिलन रद्दन नीर प्रीति को जल छीर व्रजउपासी । ध्यान को सनक से भक्त को सर्वोद से याही ते बस कियो ब्रह्मरासी ॥ मनहूँ इंन्द्र को जीति कृष्ण सर्दी की प्रीति निगम की चली नीति अति विवेकी । रहित अभिमान ते वड़े सन मान ते सील अरु दान. गोविन्द की . सदा निर्मल बुद्धि. आष्ठ सिद्धि नव निद्धि द्वार सेवत जहाँ मुक्ति दासी । रामराइ गिरिधरन जानि आयो सरन दीन के दुखहरन घोषबासी ॥ १ ॥