पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३२४

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• शिव सिंहसरोज ३०५ लखि िगईं भई पद्मन की सुवि धूलि हैं रियाँ अनिमेषुनियाँ । बहि पेखनहारी की पेखि रहे छत्रि पेखनहार औ पेखनियाँ।४। - ६७४, लाल कवि (४ ) (भाषा-राजनीति ) दोहा-मंत्र मैथुन औषधी, दान मान अपमान । ट-संपति अरु छिद्र थे, प्रगट न लाल वखान 1१। नृत्यगीत आरु पढत में, सभा, जुद) ससुरारि । लाल अहार विशहर में, लज्जा आठ नेवारिस ॥ पोड़स बरस विवाह करि) द्वादस गृह विसराम । बरस चतुर्दस घास वनराज करत पुनि राम ३ ॥ वाघन जुग की बात है, लाल अवधविस्तार । तेरह नेता हैं गये, भये राम अवतार ॥ ४ ॥ बुधि जाके बन ताहि के) निर्दूधि के व कौन । सलैक हन्यो निज बुद्धि ते, सिंह महघल जौन¥।॥ जो उपाय से होत है, व ते क्याँ कहि जात । कनकतुत ते साँप को, कवई फियो मिषाएं।६। बसे बुराई जा उर) ताही को सनमान । भलो भलो कहियागिये, खेटे ग्रह जप दान ॥ ७॥ ६७५. लालगिरिधर बैसवारे के लवले ओली ढंग लें चली । चली पतियांप बतियन जहां रति की थली। धरत जहूँ पग परत ताँ मृदु पाँवड़े मखमली ॥ गौनहाई चुनरी विच गौनहाई लली। मनो पावकंलंपट में बंईि देत कुंदन डली ॥ १ देखने की ।२ पलकहीन।३खरगोश।* व + हितोपदेश करें हैं