पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३२५

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शिवसिंहसरोज

शिmसिंहसरोज • १ कहूँ अँगति आड़ति कतईं चलत है वे गली । लिए जात मतंग को मानो महावत चली ! हरि आयत आावती हरिदृष्टि ने न हली । लालगिरिधर महू रत्ति की वेलि फूलफली ॥ द७६, लालमुकुंद कनकाचल केंद्र सुंदर लौं निरवत सिंगारलता लटकी t तियरोमावती कि सेकर है लाख बाल भुगिनि है ठकी । भनि लालमुकुंद कियाँ चकवा तकि मीर सिकार लगी पटकी। किधों मैन मतंग जयो थकि तुंग जंजीर अरीन परी अटती।।। ६७७० ललचंद कवि अजव पखेरू एक होड़ है न चाम जाके आप उड़ेि जाइ पर पंख ना दिखात हैं । तके वार वीनि बीनि वसन बनावें लोग ओढ़त न मैले दिघ रोज ही दिखात हैं जप तप जोग वारे रस्स भोगवारे लालचन्द ओोढि ढ़ि दिये हरप।त हैं । सुर मुनि ईसन को पंडित कबीसन को मंत्र सबको है यहै याको मास खात हैं 1 १ ॥ कुंडलिया—पसरै बीता एक लौं सिकुरि हाथ भरि जाय । जिआयुघल और की, कबू न पीने खाय ॥ कलू म. पी-खाय जीव iवेन दुलभ नहीं । देखो विमल विचार देखिये सब जग माहीं ॥ लालचंद लखि परे नहीं कवितन की कटेंगे । कर में देखो खोज होत का सिकुरे पसरे ॥ २ ॥ ६७, लोने (१ ) लेनेसिंह मितौलीवाले ( भागवत भाषा ) ताल री वाजत वरि मृदंग बहु रंग भयो नभ लाल री । १ उफा ।२ जहाँ हवा नहीं चलती।