पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३३०

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शिवसिंहसरोज


महेस के। बंक कर चलत दलत दुख सक्र आदि चक्र से भ्रमत भौंर ठौर एक देस के ॥ एक रद धारे हैं विदारे हैं विघनघुन्द जन सुखकन्द फन्द फारे महिपेस के लेिखराज केस छोरि बेस दीनता ते पेस बंदत हमेस पद गंगा औ गनेस के ॥ १ ॥

६८६. लालनदास ब्राह्मण, डलमऊवाले

दोहा-दाल , दृषि की दलमऊ, सुरसरि तीर निवास । तहाँ दास लालन बसेरे करि आकास की आास ॥ १ ॥

छंद

छल करी सुरेस नारि गौतम सों दीन्ही साप सह सरेड । श्रीपति घाटि कियो विन्दा सर्षों गे बौराय विविध पेठे ॥ राघन हरी जगतमाता की ताके कुल न रहै रेखे । यह लालन कहत एक रि घाटि जिन किया न होइ सोकरि देवें।१॥

६८७. लछिराम ब्रजवासी
पद

छबीले लाल छवि तेरी मोहैिं नीकी लागति है होतन मन जी वारोरे। भोर भगे आये में रे अँगना ही पल फनम सों पग झारो रे ॥ सुख दीजे रसलीजें ऐनि को हौं चित ते नेक न टारो रे । कृष्णजीशन लछिराम के प्रड फेंग नव सत सिझारो रे ॥ १ ॥

६८८. लोधे कवि

कान्ह अचानक आइ गये चितये विन लुथुट कैसे के कीलै । ती कहती हम साँ कटु वे इन बातन ऊपर क्यों करि जी ॥ लोधे कहें हम आपुन वैसिथे भागे जहों सो तहाँ कहि दीजै । ढोटा पराये को नाम न छाहु मोहैिं स जीभ बड़ी करि ली ।१॥