पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३३५

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शिवसिंहसरोज

है ? शिवसिंहसरोज सो । गौरी सो गिरा तो गजबदस गदाधर से गंगा सी ग्रेड सो गंगधारा सो गधूल सो ॥ १७ ॥ ६६७. सरदार कवि बनारसी ( साहित्यसरसी ) संग की सहेली रहीं पूजत अकेली सिवा तीर जमुना के वीर चमक चपाई है । हाँ तौ औई भागत डरत हियरा ते घेरे तेरे सोच करी मोहिं सोचित सवाई है ॥ बचि हैं वियोगी जोगी जानि सरदार ऐसी कएठ ते कालित कूक कोकिल कढ़ाई है । विपिनसमाज में दराज सी अवाज होत आज महाराज ऋतुराज की अवाई है ॥ से ॥ वैति या ख सी खिरकी खनहूखन हरि हरा इलरवै । जो संरवा घंध सुक बहिर ताहि पके फल खोलि खवावै ! सायु पतिव्रत की चरचा चित दे चतुराइनि मोहेिं सिखावै । रोखभरीगुखियाँ करि ननदी किमि ग्राधे झुक षि जाने ॥ राजकाजका में है न साजसाजका मतभ्लाजका में है न जन्त्रसाधिका में है । बेदकाँधिका में है में भेद बाघिका में सरदार नाधिका में नाहीं ध्यानलाधिका में है । वासग्रासिंका में ना प्रकासपासिका में सदा हासरासिका में है न सवाधिका में है । ज्ञानधारिका में है न कामफारिका में है जो कान्हू द्वारिका में है, वे सदा राधिका में है ॥ ३ ॥ व दिन ते निको ना बैहरि के जा दिन आने दें अंदर पै। हॉकत कत ताकत ‘, है "मन माखत मारमरोर उमेंटो ॥ पीर सहाँ न कहाँ तुम सी सरदार विचारत चार कुर्घटो। १ वन ।.२ फिर । -के