पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३३९

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शिवसिंहसरोज

३२२ शिवसिंहसरोज ) मैला होत केते भट मेला के भजाये व भंग में। तंग के कसे ते तुरकानी सच तंग कीन्ही दंग कीन्ही दिली दुहाई देत बेंग 1 सूदन सराहत सुजान किरवाने गहि घायो धीर धारि बीरताई की उमंग में । दक्खिनी पछेला करि खेलां हैं अजब खेल हेला करि गंग में रुहेला मारे जंग में ॥ ३ ॥ ७०४सेन पति कधि, वृन्दावनघासी ( कायकल्पद्रुम ) दुरि जदुराई सेनापति सुखदाई ऋतु पाघस की आई न पईि प्रेम पतियाँ । "धीर जलंधर की मुनत धुनि धरकी सो दरकी सुहागिनि की छोह भरी छतियाँ ॥ आाई सुधि वर की हिये में आई। खरकी पुमिरि प्रानश्यारी वह प्रीतम की बतियाँ । भूल औधि आधन की लाल मनभावन की डग भई वादन की सावन की रतियाँ ॥ १ ॥ गोरस न साधे राधे बरन विवेक ही सो पद को भरोसो राखें काम करे तीर को । निसा पाइ नीक ही प्रबंध करें नेम ही में दोहा करि कृति को बखानै बलवीर को ॥ पत्र लै के प्रगट करें है पृथु पालना को सेनापति सुकषि विचारै मतिधीर को कीन्हाँ है कवित्त कविराज महाराजन को ऋषि को कहत कोक कहत अहीर को ॥ २ ॥ फूलन सों बाल की वनाय गुद्दी बेनी लाल भाल दीन्ही घंत्री मृगमद की असित है । अंग अंग भूपन बनाये ब्रजभूषन वीरी निज कर सों खवाई करि हित है। है के रसबस जब दीये को मह।उर के सेनापति स्याम गहो चश्न ललित है । चूमि हाथ लात को लगा रही ऑखिन सों एहो प्रामप्यारे यह जाति अनुचित है ॥ ३ ॥ था सिला दारु निरधारु प्रतिमा को सारु सो न करता है विचारु बीच गेह रे । राखि १ बदल ।