पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३४०

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शिवसिंहसरोज १२३ दीठि अंतर जहाँ न कई अंतर र है जीभ को निफर जावत हरें हरे।अंजन बिमल सेनापति मनरजंन दैनषि निरंजन परम पद लेह रे। करि न सदेह रे वही है मन देहरे कहा है वीचदेहरे कहा है बीचदेह है। ७०५ . सूरति मिश्र आगरनिवासी खरी होहु गवालिनि, कहा तु हमें खोटी देखी, सुनैौो ने बैन ) सझे तो और ठॐ जाइये। दीजे हमै दान, सो तौ आज ना परख क। गोरस दे, सो रसहमारे कहां पाइये। महीदी दौ, सो तो देहै महैि पति को , दही दर्जे, दहे हौ तौ सीरो क खाइये ।प्रति संकधि ऐसे सुनि हरि रीझ लाल लीन्ही उर लाय सोभा कहाँ लग गाइये ॥ १ ॥ ( अलंकारमाला ) दोहा—तड़ेि घन चए न तड़ेि बसन, भाल लाल पख मोर । निजीवन पूरति सुभग, जय जय जुगलकिसोर ॥ १ ॥ सूरति मिस्र कर्नौजिया, नगर यागरे वास । रच्यो ग्रंथ नव धनने वलित विवेकविलास ॥ संवत सत्र से बरस, छौंसठ सावन मास । सुर सुदि एकादस, कीन्हो प्रन्थ श्फास ॥ २ ॥ ७०६. श्रीधर कधि (४ ) (भवानी द ) _ - नारायन .नर अमर बीर विसहुर थिर थायो । विविध दीर्घ पर दान सक् सासन सचि आयो । जय जयकार जगत्रि उदय उच्चरी अगोचर। सब्द पैच अच्छदि धवल मैंगल सर्चराचरि ! १ भीतर । २ फ़ । ३ लगातार । वे तरह-तरह के।