पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३५१

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज तो जुग फूटै न मेरी भडू यह काहू कही सखिया सखियानि ते । कंज से पानि से पाँसे गिरे अँसुआ गिरे खंजनसी खियानि ते ॥८॥ ७२३. शम्भुनाथ (२) (रामबिलास रामायण) दोहा-वसुं ग्रंह मुनि संसि घर बरप, सित फागुन कर मास । सम्भुनाथ कविता दिने, कीन्हो रामविलास ॥१॥ श्रीगुरु कवि सुखदेव के, चरननहीं को ध्यान । निर्मल कविता करन को, वहै हमारे ज्ञान ॥ २ ॥ मिटे ही उछाह उठे दाह हिय-हिय माँह जब ते अवध चाह चलिने की वगरी । कहाँ बढे बार कहाँ तरुन विचार भेष ऋपि के विचारन धरत सिर पगरी ॥ मुखदुति मुरझानी चल्यो अँखियान पानी सब देह पियरानी हरद ज्यों रगरी। हाइ-हाइ वानी घर घर सरसानी सोकसिन्धु में समानी बिललानी सब नगरी ॥१॥ ७२४. शम्भुनाथ (३) ब्राह्मण असोथरवासी (अलंकारदीपिका) बार न रहत वारपार ही वहति जाकी धार ही में मीच अरि वर की वसति है । बार बार वैरिन को वारति विदारति औ वादर बली में विजुरी सी विलसति है ।। सम्भु कहै काटि कुटि कौचन की गिरह जिरह ज्यों तितारा गंगधारा में धप्तति है । भगवंत रैया राव म्यान ते तिहारी तेग अरिन के प्रानन समेत निकरति है ॥१॥ आजु चतुरंग महाराज सैन साजत भो धौंसा की धुकार धूरि परि मह माही के । भय के अजीरन ते जीरन उजीर भये सूल उठी उर में अमीर जाही-ताही के ॥ वीर-खेत वीर वरछी लै विर- भानो इ धीरज न रह्यो संभु कौन हू सिपाही के । भूप भगवंत १ वढ़ी । २ कवच । ३ वह सेना, जिसमें घोड़े, हाथी, रथ और पैदल हो।