पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३५४

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वांफहरमें ३३७ - फेरि थाप फिरत न फे री है ॥ हें सस्नाथ सम्भुरानी तिरं- लेनानी दीन शानि बानी आानी नूतन न बेरी हैं । लागी ना निर्भप से निम्भ को विदरि डारे विपति हमारी कहा सुम्भौ ते करें है : १ ॥ ७२८. प्रसाद कवि दंपति ने सर्ष रड़ भरे लहूँ जन में लिये कोई सखी न है । सुन्दन में छत स मुरली लइ कारों के हाथ बँ छीन है । सम्भुपाद कई लवि के धरे पीन पयोधर मै सो प्रवीन है । झुग्यो जी मुसम माइ काछो दो चाँदूरी है की ये बीन नवीन है।१॥ ७२६. सन्सान कधि बेिन्कीबाले (१ ) काम के बकल फिर सुग सबीलई कोइ न आासपास ना च लत गृहुई को जन चटाई वारी बैस पे करते चद्धि वति न सकत पद्दे पर्थ सहई को ॥ बात को मरा । है न दार ज्ञान गोलिन को कहूं ना लग ऐसी अलग उचाई का ॥ सन्तन लूनाई फौजें हारि हटीं . फिरि लरि कैसेजन टूट गढ़ बाफी सिप्पुताई h A • का R _ ७३०. उजाम कवि भाट सुनवाई सरीर अधीन करें दृग नीर की आंद स्र्टा माल फिरपैं। नेह की सेली वियोग जटा लिए ग्राह की सींगी पूर वजावें। प्रेम की छाँच में ही करें सुर्षि आारो लै नी देह चिरावें। सुजान हैं कला कोटि क ई बिंयोगी के भेद को जोगी न पालें।१॥ ७३१. श्याम कवि औौनि ते नकाल ते अवासन त, उद , ते इन्दु के उदें ते या- मुझे तेउड्रो पड़े ।स्याम कविमालन ने मनते मनी ने मनमोहन १ पल भर ।२ फाड़ डाला । ३. पतिपती ।४ पृथ्वी ।५ जल ।