पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३५९

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शिवसिंहसरोज

३४२ शिघसिंहसरोज . . ७४४, सूखन कवि काल्हिही केस को होत विधेस कहीं जिन के रस में रसपानी । बाप तिहारे दई तिनको तुम ताही ने कंस विभ भरूहानी ॥ देती हौ दान लली ब्रुपभान की धौं मटकी पटकी मनमानी । सूखन नन्द को छह करों न तो नाज ही तेरो उतारती पानी १ ॥ काल्हि परे पलना एर लत नाज उगाहन दान लगे हों । कंस की यादि नहीं तुमको जिनके डर लाल उहाँ ते भगे हौ ॥ पावै सुले तौ विसाइ का पुनि दि परे पितु मातु सगे हो । सूखन चूंडिये मेरी गली इन वातन केतिक लोग ठगे हौ 1२॥ ७४५शेख कवि प्यारी परक मै निसंक परी सोवत ही कंचुकी दर िने नेश ऊपर को सरकी । आत्तर गुलाघ औौ सुगंध की महक पाइ देखो उटि यानि कहाँ ते मधुकर की ॥ बैो कुच बीच नीच उदि न सकत केहूं रही अवरेख सेख दुति दुपहर की । मानहु समर में मिरि बैरसैंकर को मारि सब रारि फक रहि गई सर की ॥ १नेक सो निहारे नाह नेक आगे नीकी बाँह दुव्रत लमिटि नारि नायेि रति है । पीतम के पानि मेलि नापनी भुजा सके कि धरकस के ।ल हियो गाहो के धरति है ॥ सेख कहे आाधे वैन बोति के मिलाने नैन हाहा करि सोहन के मन को हरति है । केलिको अभ लखि खेलाह वहाइवे को प्रौढा जो प्रधान सो नवोढ़ा है ढरति है ॥ २ ॥ ७४६. से कवि काबुल कैपत करनाटक तपत कलकता पता के समान हालैं हद जुरते । रूम रुहिलान पुगलान खुरासान हवसान सान छड़े ड़ेि भरे डर उर ते ॥ सेवक कहत गड़बड़ द्राविड़न पर धकत दिलीस देस देस तेज तुर ते । भानुकुल-भालु महादानी रतनेस जब चक्रधर पुमिरि चलत चक्रपुर ते ॥ १ ॥