पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३६९

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शिवसिंहसरोज

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चित्त धाइ चाइ । अब क्यों कहत गुरुलोगन की संक मोहिं मारत निसंक काम का कहीं जाइ जाइ ॥ एरे निरई कान्ह कहत सुजान तोसों तेरे बिन हरे आँखें रहें और लाइ लाइ । दूरी जो बसाइ तौ परेखो हूं न आइ एरे निकट बसाइ मीत मिलत न हाइ हाइ ॥ १ । ७६८. शिवप्रकाशसिंह बाबू, डुमराmचले ( रामतस्यबोधिनी ) तुलसी प्रसाद द्दिय हुलसी श्रीरामकृषा सेई भवसागर के पुल सी है लसी हैं । जाकी कविताई अनरथतरु-गासम गंगा की-सी धार भक्तजनमन सी है ॥ परमधरम मारतंड उरयोर्म उयो काम क्रोध लोभ मोह तम निसा नसी है ! गाही के प्रकास जमगन मृह मसिौ लाई अति सुख पाप जिय मेरे आय बसी है ॥ १ ॥ ७६६. बलसिंह कवि । (पटऋतु बरवे-भाषाऋतुलंहार काव्य ) भावें चन्द न चन्दन ठंरभि-समीर । भावै सेज सुहावनि बालप तीर ॥ १ ॥ ऋतु कुठंाकर आकर विरह बिसेखि । ललित लतान मितान बितानन देखि ॥ २ ॥ का बड़ भयऊ सेमर फूले फूल । जो पे स्याम भंवर सखि नहिं अनुशूल॥ ३ ॥ जेठमास सखि सीतल बर के छाँह । नई नींद सिरहनवाँ पिय के बाँह ॥ ४ ॥ पिय कर परस सरस आति चन्दनपंक। - भावक रजनि सुहावानि दरस मयंक ॥ ५ ॥ १ आकाश ।२ स्याही। ३ सुगंध ।४ वसंत ऋतु ।