पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३७

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१८
शिवसिंहसरोज
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४८.ऊध कांव

चाहौ तौ तेल औ फुलेल डारौ चोटिन में चाहो तौ बनाओ जटा कुंतल लटन के । चाहौ तुम सुंदर विभूति को लगाओ अंग ओढ़ौ मृगछाला छोड़ ओढ़िवो पटन के ॥ ऊधोजू कइत हमें करने कहा री वाम हम ताँ करत काम श्याम की रटन के। जैसी उन कही तैसी हम तो कहोई चहैं नातरु कहावे कहा चाकर भटन के ।। १ ॥

४६.उमेद कवि

राजत रुचिर सूर्मनस को रहत संग पानिप कलित मोदकर आति सैनी की । सोहत सुरंग गुन गुंदे हैंविसद जामें लावैहारी पद लोक हत चित्त चैनी की॥ जामें जलजावलि लसत नीकी भाँति बनी सुकवि उमेद रूप रसिक रिफ्रेनी की। प्यारी प्राननाथजू की रावत चतुरमुुख भूतल की वेनी कैधों वेनी पिकवैनी की ॥ १ ॥

५०.उमरावासंह पवाँर

आनन में नखरेखैं लगीं भुजमूल परी हैं तरौंन की छापैं। भाल में लीक महाउर की उमरायु विलोकिअलिक न लापै ॥ सोहत है गुनैहीन की माल हिये अवलोकि वतावत आपै । पीड़िता गड़ी वल के उधरी सुघरी हैं भली ये मनोज की थापैं।। १ ।।

 ५१ केशवदास सनाढ्य मिश्र उड़छेवाले (१)
        ( कविप्रिया )

दोहा- गुरु करि माने इंद्रजित, जन मन कृपा विचार । ग्राम दये इकईस तव, ताके पाँय पखार ॥ १ ॥ रतनाकरलालित सदा, परमानंदहि लीन । आमलकमलकमनीय कर, रमा कि रायप्रवीन ॥ २ ॥ सविता जू कविता दई, ता कहें परम प्रकास । ताके कारन कबिमिया, कीन्ही केशवदास ॥ ३ ॥

१ बाल । २ फूल और देवता। ३ झूठ ।४ कहैं। ५ बिना डरे की । ६ समुद्र और रत-समूह द्वारा लालित।