पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३७०

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शिवसिंहसरोज १ १ ७७०. शिवदीन कवि, भिनगवाले ( छप्णतभूषण ) अमुना के तट बंसी के निकट कहूं लडयो पीतपट औौ पुडुचू पति स्लोह में । उड़ेि गये अपन बसन प्यास बात साँस ग्रास लगी रैनदिन मिलिट्टे की छोह में ॥ बारदार वरत वियोग की वंशान बीच भने सिददीन परी मसिजद्रोह में । ज्ञान गुन बोरि लाज शुलनानि भानि-सानि या दिन ते याको न मे हेिं रल्ट्रो नोह में ॥ १ ॥ ७७१ सुमेरसिंह साहेबजादे बातें कनावनी क्यों इतनी हम इ स छप्यो नदि आज रहा है । मोहन जी यनमाल को दाग दिखाय रवो उर तेरे आहा है । तु वर्ष के सोने और अरी गुरु साँच को व कहा है । अंक ले इसी तौ कलंक लयो जुलु न अंक लगी तो कलंक कहा है।१॥ ७७२. शेखर कवि । भीतर से कवि थावत देखि कर्जे वह बाल आज भरि हैं । सेखर कर लगाइ के पाछे ते नागेंद के मुबान अन्हें । कन्त भरे भले बोल के खाँचे कठो तुम हो हम बा दिन ऐहैं ॥ औौधि गये याँ भिया बर जाय कनै हम हाय उराईनो बृहैं ॥ १ ॥ ७७३. लेखक कवि नलनीवाले ( २ ) पुख भावभ अपित जाको विलोकि न चन्द की ओर तिो भले। लधरामृत पान के सेवक जाके ग्रुिप साँ कौन हितैो भलो ॥ अतेि लाख के अंक निसंक दई न परीन को रंक मियो भलो। चिन् ता के घिना पठन तजि के न वियोग में बैस वितैयो भलो।। १ ॥ जय ने कनिम देखे जैसे मन में तव ते तिरि भेंट भई नई री । जलहीन से मीन दुख गुखियाँ तल दिनरैनि विथा भई री ॥

१ अत ।