पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३७२

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शिवसिंइसरोज ३५५ ७ ७७७. शशिशेखर कवि कुंजनिोत पिया विन चादि के अंग अनंग की गाँच-सी आई । इत्ती को देत उराहनो ठाढी महा कपटी किन बात चलाई ॥ हा हाँ जरी हो ज* ससिसेखर सम् सदासिब राबूि सिवाई । चेन नहीं सायंकनैनी को पंकजुनैनी गई कुम्हिलाई ॥ १ ॥ ७७८. सहीराम कवि बागत है बलि दान लिये दिन दुर्बल है लकुटी पकरी । बलि ने बहु यादर-भाव कियो पग तीनि धरा तघ महँगी हरी ॥ सहीराम कद अ नाषि लई डग तीनिदी में बसुधा सगरी। लकी जुत हाथ वह हरि के तष ज्यों कि पात बढ़ी फरी ॥ १॥ ७७. सदानन्द कत्रि अंग भंग जीती सुष्टि नासिका बनक मोती सदानन्द को ती ति तेरे तीर रोरद्वार । कनक के कानन तरैना इन्दु आानन में सल की हैं मोतीमान मरोरदार ॥ उन्नत उरोजन पै कैसी लगे उरदैसी तैसी कसी कंचुकी कुसुंभी रंग थोरदार । छोरदार अंबर की ग्रोट रे डोरदार करत कजाकी कजरारे नैन कोरदार ॥ १ ॥ ७८०. सकल कचे दाता ने खैनी में स्म का जानियत इमि कायर को जानिये समर गाँह यूर ते पानी से प्रगट एय जानिये दुखी ते सुखी नि- धनी को जानिये यु घनी धन दूर ते ॥ भाखत सकल जाने भूप ते भिखारी चोर साह ते छिाऔ चतुर चित कर ते। रातिदिन नगर ते याँ कश्वन कसूर नर जान्यो जात या विधि सहूर बेसहूर ते ॥ १ ॥ ऐसी मौज कीनी जदुनाथ ने अनाथ लाखि लीने हाथ चामर पठाये द्विज भामा के । भाषत सफल कॉष्यों सर्च को सुमेर औ कुबेर के कुबेर गात काँष अभिरामा के ॥ जरी नग लाल और लरी का १ भवन ।२ ज्योति । ३ एक आभूषण । ४ दुनिया।