पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३७६

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शिवसिंहसरोज नखसिख रूप अनूप सुन्दरी दसन दुति मनु दामिनी ॥ स्यामा प्यारी कुल उजियारी विमल कीरति ऊजरी । जोबनवाली सरस सुन्दरी चंद्रवदनी गूजरी ॥ १ ॥ वृन्दावन भीतर स्याममनोहर घेरी । हाँ तुम्हें जान न देहाँ घर को तेहाँ दान निवेरी ॥ १ ॥ ७९४. सगुणदास पद नेही श्रीवल्लभ के है गाज । चरनाम्बुज गहि मानथेि त िस्वामी पद ते भाजो ॥ गीता भार्गवत निगमसे साख तौ काहे को लाजो । गीतगोविन्द विदैवमभूलसी बाँकी कहि सके अनदानो ॥ पुरुषोत्तम इनहीं ले पैये ग्रह दृढ़ मति तुम साजो । सगुनदास कहे जुवतिसभा में गिरिधर महल विराजो ॥ १ ॥ ७६५. बलसिंहचौहान ( भारतभाषा) हृदय विचारत नख लिखत, कौर की मति पोच । हाथी नरहट मदगलितनाहिन सीलसकोच।१॥ उद्ध जुआ बस होत नहैिं, भ्राता करहु विचार । होत तालु जय तात सुनु , जिति सहाय करतार ॥२॥ - ७६६, श्रीलाल कवि भांडेर, जयपुरवाले देवो जस को मूल है, या ते देवो ठीक । पर देखे में जानिए, दुख कवर्ती नहिं नीक ॥ १॥ । सश्चय करिबो है भलो, सो आदें बहु काम । पाप न सश्चय कीजिये, जो अपजस को धाम।। १ वेद ।२ एक वेश्यागामी लंपट, जो पीछे चहुत बड़ा प्रेमी भक्त महात्मा होगया ।