पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/३८३

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३६६
शिवसिंहसरोज

३६६ शिसिंह सरोज । - तरिये यहि लाज-तरंगिन सौं गुरुलोगन को डर जी धरिये । धरिये वृंदलाल दया उर में कबक ों गॉन इने करिये 1.२ ॥ ८११• हरि कवि भावे खेल बाको मोहैिं और ना सुहार्वे कलू सुन्दरी छवीली बनी पातरे से अंग है । लागत झकोर पौन कैसी लहरात जात चन्द ज्यों चकोर चहै दीBि मेरी संग है ॥ गुन स लगाइ राखी चहौ तहाँ लिये जाउ -ऊँचे अटन पै की गत सुरंग है । एहो कोल कामिनी लगी है चित्त को आहो १ कामिनी न होइ या चढ़ावत की चंग है-॥ १ ॥ सारद सुधार ढाएं मोती बुद्धि सी साँचे हरि सिली विधान युक्ति वर भेद्य है । गुन ने पोहि तीनो रीति चारो त्ति लरी सात को बनाई हर दोप सर्वे औद्यो है ॥ अलं- कार दोऊ स्यामा स्याम अंगअंगन में पहिराइ जुग छन्द जैक्स निवेद्यो है । लच्छना घु व्यंग्य बुनि यनना डू तातषर्ज नौ रस हरि का रचि दुख खेद्य है ॥ २ ॥ ८१२• हरिवल्लभ कवि कुण्डलिया हरिया हरिसों हेत करुनिसिदिन आठौ जाप । भवसागर के वर में , यहै एक विसराम ॥ यहै एक विसरम काम जब जम ों परिहै । मात पिता पुत्र बन्धु पीर कोऊ नहिं हरिहै । हरिवल भ यह कहत देख रॉट की घरिया । निसिदिन आ जाम हेत हरि सतें करु दरिया ॥ ८१३. हरिलाल कवि गत देह दधीचि दई बनि आई भली तिम हूं मैं विदाई । १ गुण और डोरा ।