पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/५२

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३३
शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज ३३ द, कृष्णलाल कवि ( १ ) केसरि को कंचन ने कंचन को चंपक ने चंपक को जीयो प्यारी रूप ने आमंद है । गजगतिं छीने - भूषगाति छीने हंस हंसगति छीनिों को तेरी गति मंद है ॥ सब हारे वानन ने वान पंचानन ते कृष्णलाल तोहिं देखि री नंदनंद है । गजमुख मूंद कंज कंजपुख दे चंद चंदमुख दिखे को तेरो पुखचंद है ॥ १ ॥ चातक चिलुक मत मुखा कुहुक मत झींगुर झिहुक मत भेकी मन नाय मत चकवा चिकार मत पपिहा पुकार मत ठंद झरि धार मत धार धराय मत ॥ कृष्णलाल गाय मत पीर उपजाय मत बा लम विदेस पाप मैन तन ताय मत । पौन फहराय मत चपला चत्राय मत धायं मत धुरखा औौ घन पहराय मत ॥ २ ॥ ६४. कुंभनदास कवि पद । स्यामसुन्दर रैन कहाँ जागे । देखि विन गुन माल अधर अंजन भाल जावक लयो गाल पीक पागे ॥ चाल डग- मगी आति सिथिल अँग अंग सब तोतरे बोल उर नखानि दागे। गड़यो कंकन पीठि निट विहबल दीठि सर्बरी लाल नहिं पलक लागे ॥ कहिये साँचि बात काहे जिय सकुचात कौन तिय जाके अनुराग रागे । दास कुंभन लाल गिरिधरन एते पर करत झूठी साँह मेरे आगे ॥ १ ॥ ६५, कृष्ण कवि (२) वैद को वैद गुनी को गुनी ठग को ठग दूमक को मन भावै । काग को काग मराल मराल को काँध गधा को गधा खजुवावै ॥ कृष्ण ने बुध को बुध त्यों अरु रागी को रागी मिले सुर गावै । ज्ञानी सर्दी ज्ञानी करें चरचा लबरा के ढिगा लघरा सुख पावे ॥ १ ॥ १ मेढकी ।