पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/५३

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शिवसिंहसरोज

शिवसिंहसरोज ६६. कृष्ण कवि ( ३ ) जाती भा अवलोकत ही तिहूँ लोक की सुंदरता गहि वारी। इध्ण ढहैं सरसीरुद्घ लोचन नाम महमुद मंगलकारी ॥ जा तन की झ आल हरिता आंति स्यामल होत निहारी । श्रीपभा कुमारि कृपा करि राधा हरो भवबाधा हमारी ॥ १ । कृरकलस महाराज जयसिंह फैलो रावत सुजस खुरला में अपार हैं । कृष्ण कवि ताके कन सुंदर जलज जानि सुरन की सुंदरीन लीन्हो भरि थार है ॥ तिनही के संग को सरस तेरो गुन लै हार पोहिये को उन करती विचार है । मोती जो निहारें कर्फ रंथु को न लवलेस गुन को निहारै क पावती न पार है ॥ २॥ ६७करनेश कवि असनीवाले खात हैं हराम दाम करत हराम काम धाम धाम तिन ही के अपजस छावेंगे । दोजक में हैं तब काटि काष्टि कीड़े खैहें खोपरी को गूदा काग टोटनि उड़ानेंगे ॥ कड़े करनेस अवै यूसन ते वाजि तर्ज रोजा औ निवाज अंत जमै कविलाशेंगे । कविन के मामिले में करें जौन ह्वामी तौन निमकहरामी मरे कफन न पाँगे ॥ १ ॥ पौन हहराई बनवेली थहराई लहराई पुत्र सौरभ कदैवन की सान ते । झिल्ली झननाई पिक चातक चिच्याई उठे विजुछ छहराई छाई कठिन कृपान ते ॥ कहै करनेस चमकत जुगुनून चाय मेरे मन आई ऐसी उक्ति अनुमान ते । चिरही दुखारे तिनपर दईमारे मनो मेघ बरसत हैं अँगारे आसमान ते ॥ २ ॥ द८कुंज लाल कवि मऊ रानीपुरा बुंदेलखंडवासी आई एक नारि तहाँ चारि एक नारि त पाई एक नारि तहाँ नारि हू सो धाम है । रही कौन अंग लागि रही कौन अंग लागि रही अंग लागि जन लागि हू सो नाम है ॥ कहै कवि कुंजलाल १ छिए। २ कमी ।