पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/६२

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शिवसिंहसरोज

शिवासिंहसरोज ४ है। चंचल चखनि विसरि गति विवस वायरी होहै । सभा को सदन खबदन की ज्योति लखि होत है कोटि रवि सप्सि लजोहै ॥ लपष्टि उदगार उर हार कंचन वसन प्रेम सिंगार तन मन लगोहै । केवल- राम वृन्दावन जीपनि छकी सब सखी डगनि साँ रूप जोहै ॥ १ ॥ है२, फाशिराज कधि (बलवानसिंह, महाराजा चेतसिंह काशीनरेश के पुत्र ( चित्रचन्द्रिका ) छप उज्ज्वल भूषन वसन जयति घीना-पुस्तक-धर । शुत्र हंस आरूढ़ कंठगत मुलमाल बर ॥ सेस सुरेस महेस चरन पंकज बंदत नित । मनाँच्छित फल लहत कहत जन वानी धरि चित ॥ कवि काशिराज अनुनय करै डुमति लिमि, -ही ह । यहि चित्रचंद्रिका ग्रंथ को जगतजननि पूरन क ॥ १ ॥ ३३. कृष्ण कधि प्राचीन कॉपत अमर खलभल मच श्ध्रुवलोक उडगनर्पति आति नेक न सकात हैं। दस के दिनेस के गनेस सब काँपत हैं सेस के सहस फन फैलि फैति जात हैं ॥ आासन डिगत पाकPासन स्र कृष्ण कवि हानि उठे दुग्ग बड़े गंध्रव को खात हैं। चढ़े ते तुरंग नवरंगसाह वांदसाह ज़िमी आसमान थरथर थहरात हैं ॥ १ ॥ ४. कोविंद कवि (.श्रीत्रिपाठी पंडित उमापति) ( दोहाघली-रताबी ) दोहा-श्रीदसरथ सुत जानिये, अवतारी अति चित्र । मित्र मयंक अनेक युति, श्रुति बर्णित सुपवित्र ॥ १ ॥ ईश्वर तांजु दयालुता, सुन्दरता तन और । .१ श्वेत ।२ सवार । ३ मनचाहा। ४ अंधकार (५ चंद्रमा ! ६ इंद्र ।