पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/६३

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शिवसिंहसरोज

४४ शिवसिंहसरोज कोविद बनवासी ऋपी, मोहे तेहि सिरमौर।२॥ रमा सदा उत्साह इन) छमा दया ऋतचैन । निष्क्रेिचैन हू चाहियेहिय उछाह निसिंऐन ॥३। विविध सिकार करत ललनखलन द्गन जब चाहे । धर्म सर्म नरतन दरस, कोविद नितहि उछाह ।४॥ तात मात गुरु की सदा, भाक्ति विसे महेस । मित प्रीति शुरु चित्त की, वितैरत रहत हमेस ॥ ५ ॥ ६५, कलानिधि (२ ) ( नखसिख ) सुन्दरी की वेनी हेमफूलन की सेनीजुत अमित अपछरन की सीस छवि छरि है। सुपर सखीन करकमलनि बोरि पाटी पारी मरकतें की महँप दुति हरि लै ॥ कलानिधि फैल रही सीस सीसफुलखषि उपमा अनूप माँग मोतिन की लरि ले । मान वस्या तिमिर चार्किल परिवार लैके रवि की सरन सोह वीच सुरसरि तें ॥ १ । ॥ ६६. कृपाराम ब्राह्मण नरैनापुरबाले ( भागवतभाषा ) दोहा-कछु धन चोरी ते गयो, क ज्ञातिने हरि लीन । कटु धन पावक ते जस्यो, भयो काल तन हीन ॥ १ ॥ ऐसे नर जो जगत में, जो जद्यपि कह लोभ । तौ सब गुन अवगुन भयेतेहि पुनि कछु न सोभ ॥ २ ॥ ७. कृपाराम कवि (२ ) जयपुरवांले ( समयबोध ) कातिक में कहत विदेस को चलन कंत परिवारु पंचमी भली न घन छाई है । सातम अग्यारसSरु तेरस अमावस जो गाजत सघन यन महदुखदाई है 1 करत वियोग रोग बारि वरन आगे ऐसो जोग १ सत्य वचन । २ कोमल । ३ बाँटते । ४ पन्ना । ५ किरणें । ६ सारा ७ गंगा । ८ जातिवाने । ७ गे