पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/६७

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शिवसिंहसरोज

शिवां सहसराज आप छ के नयना छक, छ अधर मुसका ! छकी दृष्टि जा पर पर, रोम रोम छवि जाइ ॥ ७ ॥ १०५. किंकरगोबिंद कवि सरि जात संचित संचित विसरि जात करि जात भोग भव बंधन कतरि जात । तरि जात कामतरि बरि जात कोप करि कर्म कलिकाल तीन कंटक भभरि जात ॥ भरि जात झागि भाल किंकरगोबिंद त्योंहीं ज्योंहीं तुलसी की कविताई पे नजरि जात । जरि जात दंभ दोप दुखन दररि जात दुरि जात दरिद दुकाल हू निखर जात ॥ १ ॥ किंकरगोविंद कलिकाल करतब देखो दीछित परीछित से ईछित छरत है । गो कोरे ज्ञानिन मुख तेरे बकयानिन के दानिन कबू ना अयोनिन करत है ॥ हँसे दिघिन- यकन उसे सुवि सायकन कसे सुनिनायकन डाटति फिरत है । छाड़ हरिपायकन रामगुनगायकन तुलसी के बायकन बाँचत डरत है ॥ २ ॥ १०६कलीराम कवि स्वामी बुनि श्यामहद आवैगी दया न करि तीनों लोक जाके उर माया एक छन की ताहि छड़ेि चोरी के चनैना तुम चावि गये क्यों न होइ दारिद तुम्हें कु एक कान की ॥ वै तौ गुनयूएन न माने क कलीराम धाय कर लाज ब्रजराज लाज जन की। जो लौं चिंत चिंता हती तौ लौं देखि दुख पायो चैति चित चिंतामान चिंता जाइ मन की ॥ १ ॥ वहर वह आछी पानी की नहर वीच अतर गुलाल फूल फूले गुललाला के । खोखोर खंजन चकोर मोर पिक नि त्रिविध सुगंध पौनपुंज अलिमाला के ॥ बीच फुहकारी दुर्दू द पुकता री फूल

+ १ इंद्र : २ गलीगली ।