पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/७४

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शिवसिंहसरोज

कवित्त। राजे भाजे राज छोड़ेि रन छोड़ि राजपूत रौतौ छोड़ि राउत रनाई छोड़ि राना जू । कहै कवि गंग हूल सागर के चहूँ। बूल कियो न करें कबूल तिय खसमानाजू ॥ पच्छिम पुरतगाल कासमीर अवताल खक्खर को देस बाक्ष्यों भक्खर भगाना जू । रूप साम लोमसोम वलख़ बदखसान खैज़ फैल खुरासान खीझे खानखाना जू ॥ ४ ॥ कश्यप के तरनि तरनि के करन जैसे उदधिके इंदु जैसे भये यों जिजाना के। दसरथ के राम और स्याम के समर जैसे ईस के गनेस औ कमलपत्र आना के ॥ सिंधु ज्यों सुरतरु पौन के ज्यों हनुमान चंद के ज्यों बुध अनिरुद्ध सिंहवाना के । तैसेई सपूत खान वैरम के खानखाना वैसई तुरावखाँ सपूत खानखाना के ॥ ५ ॥ अधर मधुष से बदन अधिकानी छवि त्रिधि मानो विधु कीन्हो रूप को उदघि के । कान्ह देखि आवत अचानक मुरछि पयो बदन छपाइ सखियान लीन्हो मधि के ॥ मारि गई गंग दृग–सर वेधि गिरिधर आधी चितवनि में अधीन कीन्हो अधि। बान वर्धि वधिक वंधे को खोज लेत फेरि बधिक–वधू ना खोजि लीन्हो फेरि वधि के ॥ ६ ॥ लाखि पाँयन पायल पाँय लहे पुनि लैंक ते दौरि निसंक गयो । तब रूप नदी त्रिवली तरि कै करि कै मति साहस पार भयो॥ कुच दोऊ सुमेरु के बीच में री मन मेरो मुसाफिर लूटि लियो । कवि गंग कहै वटपाँर मनोज रुमावली ते ठग संग ठयो ॥ ७ ॥ मृगनैनी की पीठि मैं वेनी लसै सुख साज सेंनेह समोइ रही । मुचि चीकनी चारु चुभी चित में भरि भौनभरे ख़्सबोई रही ॥ कवि गंग जू या उपमा जो कियो लाख सूरत ता श्रुति गोइ रही। मनो कंचन के कदलीदल पे अति साँवरी साँपिन सोइ रही।॥_________________________________________ १ सूर्य । २ मार कर । ३ मारे हुए को । ४ कमर । ५लुटेरा । ६ तेल ।