सून जग कै गयो ॥ के ॥ कुंजन में बाँसुरी बजाई नँदनंदन जू
घुनि सुनि सबके हिये को होस हरि गो । कहै गिरिधारी कुलनारिन
की भीर भई निपट अधीर पै न धीर नेक करि गो ।। विकेसी
कली सी चलि निकसी निकेतन ते नहीं व्रत नेम को विचार
कटू करि गो । लाज को रिसाला तजि दौरी व्रजवाला सव
आजू कुलमाला को दिवाला सो निकरि गो ॥ ४ ॥ भयो पति
झार पतिझार में उघरि गयो हुतो जौन केलिकुंज कालिंदी
किनारा मैं । कहैं गिरिधारी सो विलोकतै विहाल भई वाल यंह–
रानी मुकताहल ज्यो थारा मैं ॥ छीटदार कंचुकी कलित कुचकोरन
में सुखमा वढी यो ताकी उपमा विचारा मैं । ढारे मेघडंवर
वघम्बर अनूप मानो शंभु के सरूप द्वे अन्हात छिन्न धारा मैं ॥ ५ ॥
वेदन के थाल्हा वीच उपज्यो है पौधा एक वारा हैं सु डारै जाकी ओंकार जर है । तीनि सै पैंतीस साखा दसहू दिसा में फैलीं ज्ञान औ विराम तोए खगन को घर है ॥ पात जे अठारह हजार छवि छाइ रहे जाकी छाँह वैठि यमदूत को न डर है । एहो वन– माली गिरिधारी कहैं वारवार भागवतरूपी सो कलपतरुत्रर है ॥ १ ॥
दाहिने चरन में विभूति भूति भूपमान बायें पग जावक जमाति काँति सो भरी । आधे अंग अंदर वघँवर विराजमान आधे अंग सारी जरतारी छवि सो जरी ॥ आधे गरे व्याल आधे हीरन के माल लसै आधे भाल चन्द्रमा औ में आधे टीका केसरी । गिरिजा गिरीस यह रूप गिरिधर भनै मो पर महेस जू महेश्वरी कृपा करी ॥ १ ॥
१ खिली हुई । २ घर।