पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/७७

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शिवसिंहसरोज


सून जग कै गयो ॥ के ॥ कुंजन में बाँसुरी बजाई नँदनंदन जू घुनि सुनि सबके हिये को होस हरि गो । कहै गिरिधारी कुलनारिन की भीर भई निपट अधीर पै न धीर नेक करि गो ।। विकेसी कली सी चलि निकसी निकेतन ते नहीं व्रत नेम को विचार कटू करि गो । लाज को रिसाला तजि दौरी व्रजवाला सव आजू कुलमाला को दिवाला सो निकरि गो ॥ ४ ॥ भयो पति झार पतिझार में उघरि गयो हुतो जौन केलिकुंज कालिंदी किनारा मैं । कहैं गिरिधारी सो विलोकतै विहाल भई वाल यंह– रानी मुकताहल ज्यो थारा मैं ॥ छीटदार कंचुकी कलित कुचकोरन में सुखमा वढी यो ताकी उपमा विचारा मैं । ढारे मेघडंवर वघम्बर अनूप मानो शंभु के सरूप द्वे अन्हात छिन्न धारा मैं ॥ ५ ॥

२२२ गिरिधारी कवि (२ )

वेदन के थाल्हा वीच उपज्यो है पौधा एक वारा हैं सु डारै जाकी ओंकार जर है । तीनि सै पैंतीस साखा दसहू दिसा में फैलीं ज्ञान औ विराम तोए खगन को घर है ॥ पात जे अठारह हजार छवि छाइ रहे जाकी छाँह वैठि यमदूत को न डर है । एहो वन– माली गिरिधारी कहैं वारवार भागवतरूपी सो कलपतरुत्रर है ॥ १ ॥

१२३ गिरिधर बंदीजन होलपुर के ( १ )

दाहिने चरन में विभूति भूति भूपमान बायें पग जावक जमाति काँति सो भरी । आधे अंग अंदर वघँवर विराजमान आधे अंग सारी जरतारी छवि सो जरी ॥ आधे गरे व्याल आधे हीरन के माल लसै आधे भाल चन्द्रमा औ में आधे टीका केसरी । गिरिजा गिरीस यह रूप गिरिधर भनै मो पर महेस जू महेश्वरी कृपा करी ॥ १ ॥


१ खिली हुई । २ घर।