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शिवसिंहसरोज


१२४. गिरिधर कविराय (२ )
( कुण्डलिया )

मान पुत्र दोनों वड़े चारौ जुग परमान ।
सो दसरथ दोनो तजे वचन न दीन्हे जान ॥
वचन न दीन्हे जान वड़ेन की यही वड़ाई ।
वचन रहे सो काज और सरवस किन जाई ॥
कहि गिरिधर कविराय भये दसरथ नृप ऐसे ।
प्रान पुत्र परिहरे वचन परिहरे न जैसे ॥ १ ॥
रही न रानी केकई अमर भई यह — वात ।
काहू पूरव जोगते बन पठये जगतात ॥
वन पठये जगतात पिता परलोक सिधारे ।
जेहि हित सुत के काज फेरि नहिं बदन निहारे ॥
कहि गिरिधर कविराय लोक में चली कहानी।
आपकीरति रहिगई कैकयी रही न रानी ॥ २ ॥
भाषा भूसा छोड़िकै सरी संसकृत डारि ।
सब जड़ तू चेतन सदा ब्रह्म यहै उर धारि ॥
ब्रह्म यहै उर धारि छाँड़ि सवही सिर दर की ।
पर को किस्सा छाँड़ि खवरि ले अपने घर की ॥
कहि गिरिधर कविराय समुझि वेदन की आशा ।
सव कलपित तुम माहि देववानी नर-भाषा ॥ ३ ॥
नायक अपनी नायका जनम पाइ देखी न ।
रूप कुरूप लख्यो नहीं सेज परसपर लीन ॥
सेज परसपर लीन इते पर नायक रूयो ।
प्यारी लियो मनाइ लिख्या मजकूर अन्यो ।
कहि गिरिधर कविराय हुते दोऊ सम लायक ।
यह नहिं जानी जाइ कौन विधि रूट्यो नायक ॥ ४ ॥