पृष्ठ:शिवसिंह सरोज.djvu/८५

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शिवसिंहसरोज

ऐ सुकजाल बोलत विसाल ते न भोगत मरूकै ये । धीर को धराती छाती कौन अवला की अब कोक के कला की कोकिला की सुनि कूकै ये । जलथलगंजन सरसरसभंजनसुमान की प्रभंजन प्रभंजन की झुकै ये ।३ ॥ गौन हद होन लागे सुखद सुभौन लागे पौन लागे विपद वियोगिन के हियरान । सुभग सवादिले सु भोजन लगन लागे जगन मनोज लागे जोगिन के जियरान ॥ कहत गुलाल बन फूलन पलास लागे सकल विलासन के समय सु नियरान । मान लागे मिटन अमान दिन आन लागे भान लागे तपन पान लागे पियरान ॥ ४ ॥

१३४ गोपाल कायस्थरीवाँवाले (१ )
( गोपालपच्चीसी ग्रन्थे )

तूरत फूल कलीन नवीन गिरो मुंदरी को कहूँ नग मेरो । संग की हारी हेराइ गोपाल गई अलसाइ डेराइ अँधेरो ॥ साँसति सासु की जाइ सकौ न अहो छिन एक न गैयन फेरो। कुंजबिहारी तिहारी थली यह जात उज्यारी दया करि हेरो ।। १ ।।

१३५गोपाल कवि चरखारी के(२ )
छप्पै ।।

प्रथम पढ़िव हरिचंद भूप छतसाल निवासह । विय पब्लिक पहलाद भूप जग तेल सुवासह ॥ गुन पढ़ी दानी राम भूप की कीर्ति सुहाई । नृप खुमान ढिग भानदास बहु काव्य सुनाई ॥ विक्रम महीप कवि मान पढ़ि सुजस साखिसाखिन बड़े । करुणानिधान रतनेस ढीग कवि गोपाल नितप्रति पढ़े ॥ १ ॥


१ तोड़नेवाली । २ वायु । ३ भानु = सूर्य । ७ ढूंढ़वाकर।