पृष्ठ:शिवा-बावनी.djvu/१७

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शिवा बावनी

शिवा बावनी पीट कर जोर से रोती हैं। जो घर में तीन तीन बार भोजन करती थी आज वे ही जंगल में बेर बीन बीन करवा रही हैं। __ टिप्पणी इस छन्द में यमक, अनुमास और उपमा अलंकार हैं। यह छन्द कविता का कुछ अच्छा उदाहरण नहीं कहा जा सकता। यद्यपि अनुपास और यमक में यह छन्द अति मधुर है, तथापि इसमें भाव की शिथिलता है, विशेष कर चौथे चरण में घात की चर्चा करने के बाद बेर खानेकी चर्चा उठाना बिलकुल असंगत है, और ऐसा जान पड़ता है, कि यहां छन्द पृत्ति की आवश्यकता ने अर्थ-गौरव पर विजय पाई है। इसी प्रकार की काव्य-दुर्वलता आगे के कई छन्दों में दिखाई पड़ती है । अन्दर ते निकसी न मन्दर को देख्यो द्वार, बिन रथ पथ ते उघारे पांव जाती हैं। हवाहून लगाती ते हवा ते बिहाल भई, लाखन की भीर में संभारती न छाती हैं। भूषन भनत सिवराज तेरी धाक सुनि, हयादारी चीर फारि मन झुंझलाती हैं। ऐसी परी नरम हरम बादसाहन की, नासपाती ग्वाती ते बनासपाती खाती हैं ॥६॥ भावार्थ भूषण कहते हैं कि हे महाराज शिवाजी श्रापका आतंक सुनकर बादशाह की बेगमे, जिन्होंने कभी भीतर से निकल