पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/१०२

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शृङ्गानिर्णय। यथा सवैया । बारहो मास निरास रहैं ज्यों है वह बा. तक स्वाति के बुन्दहि । दाज्यों कज के भानु को काम बिचारै न धाम के तेज के तुजहि ॥ ज्यों जलहौ में जियें भाषियां लखि आजउ सु- गति के दुख इन्दहि । त्यो तरमाय मरै सखियां अँखियां चहैं मोहनलाल मुकुन्दहि ॥ ३०३ ॥ चिन्तादसा लक्षण - दोड़ा। मनसूबनि तं मिल न को जहँ सङ्कल्प विकल्प । ताहि कहैं चिन्तादमा जिन को बुद्धि अनल्य ॥ यथा सवैया ये विधि जो बिरहागि के बान सों मारत हो तो है मर मांगी। जो पसु होउ तऊ मरि के सई पावरौ है हरि के पग लागौं ॥ दास पखान में करी मोर जु नन्दकिशोर प्रभा अनु- रागौं । भूधन कीजिये तो बनमालहि जाते गोपालहि के हिय लागौं । ३०५ ॥ कवित्त काइ को न देतौ दून बासन को अन्त ले