पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/१०५

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शृङ्गारनिर्णय। हियेही हिये लछि सास ससै घरघाडू को धे. रति । दास दसा निज भले प्रकास हरेही हो। हो हरी हरी टेरति ॥ ३१२ ॥ .हेगदसा- दोहा। जहाँ दुःखरूपी लगै सुखद जु वस्तु भनेग रहिवो कहुँ न सोहात सो दुसहदसा उद्देग ॥ यथा कविता एरोविन प्रीतम प्रकृति मेरी औरै मई तातें अनुमानौं अब जीवन अलप । काल की कु- मारी सो सहती हितकारी लगौ गीतरस बारी मालो गारी को जलप है ॥ विष से बसन लारें आग से असन लागें जोन्ह को जसन काल मा- नए कलप है। दसौदिसि दावा सौ पजावा सौ प्रवरि भई आवा सौ अजिरि श्रीनि तावा सौ तलप है। ३१४॥ पुनः सवैया। शाहि खरायो, खराद चढ़ाय चिरंजि बि- चारि कछु मलिनाई। चूर है बगस्यो चहुँ ओर