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काछू रति । कौने शृङ्गारनिया मुहूरत लीने कहो तुम कौन की है यह सोने की भूरति ॥ ३२७ ॥ मरन दसा दोहा। मरनदसा सब भांति मोह निराम मरिजाय। जीवन मृत कै बरनिये तहँ रसभंग बनाय यथा सवैया। नारी न हाथ बही उहि नारी के भारली मोहि मनोज महा की। जीवन ढंग कहा ते रयो परजंक में आधे रही सिलिलाको । बात को बोलिबो गात को डोलिबो हेरै को दास उसास जथा को । सौरौ है आई तताई सिधाई कहो मरिवे में कहा रह्यो बाकी॥ ३२६ ॥ इति श्री भिखारीदासकायस्थकृते श्रीशृङ्गारनियः समाप्तः । ॥ शुभंभूयात् ॥