पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६ शृङ्गारनिर्णय। तेरे । कोटि कर नहिं पाथवे को अब तो सखि लाल गरे पस्यो मेरे ॥ ७२ ॥ कृष्ट की कनिष्ठा यथा । अधो जू मानें तिहारी कही हम सीखें सोई जोई श्याम सिखावें । जातें उनै सुधि जोग को आई दया के बहे हमहूं को पठावें ॥ कूबरौं कांख जो दावे फिरें हमहूं तिनको समता कहूँ प्रा३ । पाठ करें सब जोगही को जुपै काठह की कुबरी कहूं पाबैं ॥ ७३ ॥ जढ़ा अनूढ़ा लक्षण दोहा । अढ़ अनूढ़ा नारि है अढ़ा व्याही जानि । विना व्याह सो धर्मरत ताहि अन्दा मानि ॥ यथा सवैया। श्री निमि के कुलदास को न निमेष कु- पंथनि छै समुहाती ! तापर मो मति मेरो सुभाव बिचारि यहै निह ठहरातौ ॥ दास जू मावी खबर मेरे को बीसबिसै इनकी रँग राती । नातक सांवरौं मूरति राम की मो अंखियान में क्यों गड़िजाती ॥ ७५ ॥ इति स्वकीया।