पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/२९

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शृङ्गानिलाय ! खती । अपनौ तनछांह सों तुंगतनी तनु छैल छबोले को छै चलती ॥ ७ ॥ धीरख यथा सवैया । वा अधरा अनुरागो हिये जिय पागो वहै मुसक्यानि सुचाली । नैनन सभि परै बहै सूर- ति बैनन बूझि परै वहै भाली ॥ लोग कलंक लगावत लाख लुगाई कियो करें कोटि कु- चाली । क्यों अपबाद वृथाही सहै री गहै न भुजा भरि क्यों बनमालो ॥८॥ जढ़ा अनूढा लक्षन दोहा। होति अनूदा परकिया विन ब्याहे परलौन प्रेम अनत व्याही अनत जढ़ा तरुनि प्रबीन ॥ अनूढा यथा सवैया। जानति हौं बिधि मीच लिदी हरि वाकी तिहार बिछोह के बानन । जौ मिलि देह दि- लासो मिलाप को तो कछु वाकै परै कल प्रा- नन । दास जू नाहि घरौ तें सुनौ निज व्याह उछाह को चाह को कानन । वाही धरी ते न