पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/३४

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शृङ्गारनिर्णय। ३३ यथा कविता भूख प्यास भागौ बिदा मागी लोकवास मुख तेरी जक लागो अंग सौरक छुवै जरै । दास जिहि लागि कोज एतो तलफत वा कसा- इन सो कैसे दई धीरज धरो परै ॥ जौती जी चहै तो बेग रोती घरी ले चल नहीं तो सही तो सिर भजस वै परै मरे । तू तो घरबसी घर आई घरी भरि हरि घाटही में तेरे नैन धायन घरी भरै ।। ६६ ॥ अब तो बिहारी के वे बानक गये रो तेरो तनदुति केसरि को नैन कासमोर भौ । श्रोन तुव बानौखातिबुंदनि को चातिक भी खा- सनि को भरिबो दुप्रदजा को चौर भौ। हिय को हरख मरु-धरनि को नीर भो रौ जियरो मदन तीरगन को तुनौर भौ।एरौ बेगि करिकै मिलाप धिर धाप न तो आप अब चाहत अ- तन को सरीर भी॥६॥