पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/४४

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शृङ्गारनिर्णयः । अज्ञात यौवना साधारणः- यथाः सवैया । मुहिं सोच निजोदर रे ख ल खे: उर में ब्रण वेष सो होन च है। गति भारी भई विधि कौवो कहा कसि बाधताई. कटि-नी बी ढहै ॥ कहा भौंहनि भाव दि ग्वावै भटू कहिवे काकू होय सो खोलि कहै । पट मेरो चलै बिचले तो अलौ तू कहा रद गुरौ दाबि क है ॥: १२७ ।। अज्ञातयौवना ख कीया। सति तैहूं हुती निमि देखत ही जिन चै नै अई ही निछावरियां । तिनः पानि गयो हुतो मेरो तबै सब गाय उठौं बज ग वरियां ॥ अँसुवा भरि पावत मेये अजौं सुमिरे उनको पण गाव- रियां । कहि को हैं हमारे वे कौन लगैं जिनके सँग खलीही भावरियां ॥ १२८॥ परकीया अज्ञातयौवना। हार गई तहँ मेह मिल्यो हरि कामरी ओढ़े हुत्यो उत बैसो। आतुर पाडू के अंग छपाडू ब- चाडू के मोहिं गयो जस लै सो ॥ दास न ऐसो