पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/४९

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४८ शृङ्गारनिर्णय। मुग्धादि को संयोग - दोहा । अब कहियत तिज तियन के रति संजोग प्रकार । होत चेष्टा बचन तें प्रगट जु भाव अपार॥१४१ ॥ मुग्धा तिय संयोग में कही नवोदा जाहि अविश्रब्ध बिश्रब्ध है जे न पतिहि पतियाहि ॥ अविश्रब्धनकोढ़ा -- कवित्त ! सोवती अऊली है नवेली केलिमन्दिर ज- गाय कै सहेली रस फैलौ तस्दै टरि के दास त्योंहो आय हरि लौन्ही अङ्ग भरिन सँभारि सकी जागी जऊ सुन्दरि भरि कामचलि म. चलि चलबिचल सिँगारन के कसमसै एजीएजी नाही नाही करिकै। तकै तन झारै झमका करै छुटिबे को उर धरहरै जिमि एनौ जाल परि कै॥ १४३॥ विश्वब्धनबीढ़ा। केलि पहिलीये दुखतूल टूजी सुखमूल ऐसी सुनि आलिन सो आई मति ढंग में। बसन ल. मेटि तन गाढ़ी के तनौनि तनि सोन-चिरिया ॥