पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/५३

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शृङ्गारनिर्णय खबावत अंजन देत बनावत आड़ काँपो बिन हेत हो। या मुघराई भरोसे क्यों दौर के छोरि सखीन को काजर लेत हो ॥ १५४ ।। परकिया स्वाधीनप्रतिका कबिता कैबा मैं निहारे पिछवाई की गली में अली झांकि के आरोख नित करत सलामैं है। के बा भेख भिच्छुक की छोटी बीच आप प्राय सबद सुनायो दुपहर जज लामें हैं। दास भनि वा भीतरेहूं बै गिरास गए पहिरि सुनारिन को ब- सन ललामें हैं। हाल हौं गवाबिन न घात मि. लबे को लहौ मेरे हित कान्ह केली कहत क- लामे है ॥ १५५ ।। रूपगर्विता यथा सवैया । चंद सा बानन मेरो बिचारो तो चंदही देखि सिराओ हियो जू । बिम्ब सो जो अधरान - खानो तो बिस्वहि को रस पीओ जिनौ श्रीफल ही क्यों न अंक भरी जो पै श्रीपाल मेरे उरोज कियो जू । दीपति मेरी दिये सौ है दास तो जाऊँ हों वैठि निहारो दियो जू ॥ १५६ ।। wewersion