पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/५४

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शुमारनिर्णय। ५३ प्रेमगविता सवैया। न्हान-ससै जब मेरो लखै तब साज ले बैठत आनि अगाऊँ। नायक हो ज न रावरो लायक यो कहि हौं कितनो समुझाऊं ॥ दास कहा कहौं पै निज हाथही देत न होई सवारन पाऊं। मोहितो साध महा उसमें जो महाउर नादून तोसों दिशाऊं ॥ १५७ ॥ गुनगविता कवित्त । और न अनेसो लगे हों तो ऐसौ चाहती जो बालम के मोशौतिय व्याहि कोज पावती। क्यों हूं कछु कारज उठाए लेती मेरो धरी पहर को अलौ तौ हौं खाली होन पावती ॥ दास मनभावन के मन के रिझावन को. चार चारू चित्रित के चित्र दरसावतौ । ग्रेमरस धुनि को कवित्तें करि ल्याबती के बौने ले जावती कै गौते कछु गावतौ ॥ १५८ !! बासक सज्जा लक्षन दोहा। श्रावन्तौ जहँ कन्त की निजह जानै दार । बासकसज्जा तिहि कहत साजै सेज सिँगार ॥