पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६१

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शृङ्गारनिय। की। पहिले भुलानी अब जानौ मैं रसिकराय रावर के अंगनि निसानी नवरस को ॥१७॥ अधीरा यथा । ज्वाल उपजाबन अज्वाल दरसावन सुभाल यह पावक न जावक दिढ़ाये हो । देखि नव- सिख उठी विष की लहरि महा कहा जो अधर बीच अंजन तो लाये हो ॥ दास नहि पौक- लोक व्यालिजि बिसाली ठोक उर से नखच्छत न खंजर छपाये हो। मेरे मारिनेको वा बिसा- सिनि पठाई हरि छल को बनाय लिये कितनी उपाये हो॥ १७८८ ॥ धोराधीरा यथ सवैया। भाल को जावक अोठ को अंजन पोछि के होते गलीपथगामी । ठोढ़ी की गाढ़ नर च्छत मूंदो न दास जू होती यों बेसुधि कामी ॥ कंस कुठाकुर नंद अहीर परोसिनि देत डरै बदनामी। यातें कछू डर लागे न तो हमै रावरही सुख सों सुख खामौ ॥ १७८