पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६२

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शृङ्गारनिर्णय। प्रौढ़ा धीरादि भेद लक्षन दोहा । तिय जु प्रौढ़ अतिप्रेम मैं सो न सकै कहिबात । तारिस ताकी क्रियन तें जाने मति अवदात। यथा सवैया। होरी की रैनि बिहाय कहूं उठि भोरहीं भावता आवत जोयो । नेकु न बाल जनाई भई जज कोप को बौन गयो हिय बोयो । दास जू दै दै गुलाल की मारनि अंकुरिबो उहि बोज को खोयो। भावते माल को जावक ओठ को अंजनही को नखच्छत गोयो ॥ १८१ ॥ तिलक! प्रौढ़ा धोरादि के तीनों भेद याहो में हैं। मानिनी लक्षन दोहा। पियपराध लखिमान को किये मातिनी नाम । लघु मध्यम गुरु मान को उदै होत जा काम ॥ लघुमान यथा सवैया। है यह तो घर आपनाई उत तो करि श्रा- ओ मिलाप की घातें । यों दुचिताई मैं प्रेम सनै न बनेगी कछू रस रीति सुहातें ॥ दासही