पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६४

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शृङ्गारनिर्णय। 1 अथ कलहंतरिना दोहा । कलहन्तरिता मान के चूक मानि पछताय सहज मनावन की जतन मान सांति जाय। यथा सवेशा। जीवों तो देखते पाय परौं अब सौति के महलै किन होई। आज ते मान को नासन लेड करौं रहलै सहलै अति जोई ॥ दास जू है न सकी बिखदै सिख मान को बैरिन प्रान लि. थोई ! एरी सखौ कहूं क्यों इ लवौ पिय सों करिमाज जियै तिय काई॥ १८ ॥ लघुमान सांति सधैथा। नानि कै वा निहारत मेरे गई फिरि बाकी कमानसौ मौहैं ॥ दास जू डारि गले भुज बाल के लाल कौ चतुराई अगौ । प्रानप्रिया खखि ती वा गवारि के सामुहे ब्योम उड़े खग की हैं ॥ बोली हँसौहै जु दौजिये जान किये रहिये मुख सो मुख सोहै ॥ १८८ ।। मध्यम मान सांति - सवैया। बातें करी उनसों घरो चारि लो सो निज