पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६६

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शृङ्गारनिर्णय। विपलब्धा लक्षन दोहा । मिलन-आस दै पति छली औरहि रत है जाइ। बिप्रलब्ध सो दुःखिता परसंभोग सुभा ॥१८२॥ यथा कविता जानि के सहेट गई कुंजन मिलन तुमैं जान्यो ना सहेट के बटैया ब्रजराज से ! सूनो लखि सदन सिँगार ज्यों अंगार भए सुखदैन वारे भए दुखद समाज से ॥ दास सुखकंद मंद सीतल पवन भए तनले सुज्वाल उपजावन इला- ज से । बाल के बिलापन बियोग तन तापन सो लाज भई मुकुत मुकुत भए लाज से ॥ अन्य संभोगदुःखिता यथा सवैया । ढौली परोसिनि बेनी निहारिक जान गई यह नायक गूंदी । और विचार बढ़ो बहुस्यो लखि आपनी भांति को नौवी को फूंदी ॥ दास- पनो अपनो पहिचानत जानौ सबै जु हुती कछु मूंदौ । अभि उसास गही तरुनौ बरुनीन में छाय रही जल बंदौ ॥ १६४ ॥