पृष्ठ:शृङ्गारनिर्णय.pdf/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शृङ्गारनिय । प्रथम प्रवत्मात प्रेयसी प्रोषितपतिका फोरि आगमतपति का बहुरि आगतपतिका हेरि ॥ प्रवत्सातप्रेयसी सवैयाँ। । बात चली वह है जब तें तबतें चले काम के तौर हजारन । भूगल औ प्यास चले मन तें अमुत्रा चले नैनन ते सजिवारन ॥ दास चली करतें बलया रसना चली लंक तें लाग्यो अवार न । प्रान के नाथ चले अनते तनतें नहि पान चले किहि कारन । १६६ ॥ प्रोषितपतिका। सांझ के ऐब की औधि है आये बितावन चाहत बाहू बिहानहिं । कान्ह जू कैसे दया के निधान हो जानो न काहु के प्रेम प्रमानहि । दाल बड़ोई विछोह के मानती जात समौन के धाट नहान हिं । कोस के बीच कियो तुम डेरो तो को सकै राखि पियारी के प्रानहि ॥२०॥ श्रामच्छतपतिका बाम दई कियो वाम भुजा अँखिया फरक --